राजा भैया के लिए चुनौतियों भरा होगा पार्टी बनाकर राजनीति करना – विश्लेषण

 

Ulta chasma uc  : दलितों का मसीहा बन जाने के राजनीतिक ट्रैंड के बीच राजा भइया सवर्णों के सरदार बनने जा रहे हैं. सियासत में सवर्ण हमेशा लावारिस रहे हैं..बीजेपी सवर्णों को अपना कहती है. लेकिन मायावती से ज्यादा दलित समर्थक बन चुकी है. राजाभैया ये समझ चुके हैं..सवर्णों को लपकने का इससे बेहत मौका नहीं मिल सकता. वो समझते हैं कि उनकी यही समझ उनको दिल्ली तक ले जाएगी. मंत्री बनवाएगी. सब सोच रहे थे कि राजा भैया नई राजनीतिक पार्टी के ऐलान के बाद किस मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे. विकास की माला जपेंगे..मंदिर वहीं बनाएंगे या फिर दलितों के मसीहा बनेंगे.

 

प्रमोशन में आरक्षण के विरोध का मतलब दलितों का विरोध

राजा भैया ने साफ कर दिया कि वो सवर्णों की लड़ाई लड़ेंगे प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करेंगे. प्रमोशन में आरक्षण का विरोध दलितों का विरोध है..जिसकी हिम्मत बीजेपी नहीं कर पाई वो राजा भइया करेंगे. कुल मिलाकर राजा भैया मायावती के विरोधी हैं..मायावती अखिलेश के साथ हैं. इसीलिए राजाभैया ने अखिलेश से दूरी बना ली है..राजनीतिक जानकार मानते हैं कि दलित वोट राजा भैया को चाहिए नहीं. मुस्लिम वोटों से उनके पिताजी का छत्तीस का आंकड़ा चलता रहता है. मुहर्रम के दिन राजा भैया के पिता उदय प्रताप सिंह भंडारा करते हैं. मंदिर के सामने से मुहर्रम का जूलूस निकलता है.

मुस्लिमों से अदृश्य खटास

भंडारे का आयोजन बंदर की पुण्यतिथि पर मनाया जाता है. बताया जाता है कि बंदर की मौत मुहर्रम के ही दिन हुई थी. राजा भैया के पिता को पुलिस मुहर्रम के दिन नजरबंद कर लेती है. मतलब मुस्लिमों का वोट भी राजा भैया को मुश्किल से ही मिलेगा. यूपी में लगभग 300 छोटे दल राजनीति में हाथ आजमाते हैं. अब राजा भैया और शिवपाल की नई पार्टियां भी इस दौड़ में शामिल हो जाएंगी. सवाल ये हैं कि यूपी में कोई भी पार्टी यूपी में एंटी दलित राजनीति करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती.

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तो क्या सवर्ण बीजेपी का साथ छोड़कर राजा भैया को अपना मसीहा मान लेंगे. राजा भइया बीजेपी के ज्यादा वोट काटेंगे या शिवपाल सपा को ज्यादा नुकसान पहुंचाएंगे. राजा भैया अब तक सपा के समर्थन से और बीजेपी के समर्थन से चुनाव लड़ते आए हैं. लेकिन राजानीतिक दल बनाने के बाद अपने दम पर चुनाव लड़ना होगा.

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पीछे से ही सही राजाभैया को किसी ना किसी दल की बैसाखी तो मिली ही थी. लेकिन अपनी पार्टी बनाने के बाद राजा भैया का सामना असली चुनौतियों से होगा. क्योंकि जिस दलित विरोध की राह राजा भैया ने चुनी है उस राजा भैया के साथ ना बीजेपी चलेगा और ना ही सपा चल पाएगी. क्योंकि जी राजनीतिक दल की चुनावी चटनी में दलितों का स्वाद ना हो उसे कोई भी राजनीतिक पार्टी पसंद नहीं करती.

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राजा भैया का जन्म 31 अक्टूबर 1967 को पश्चिम बंगाल में हुआ. प्रतापगढ़ की कुंडा से विधायक हैं. केवल 24 साल की उम्र में राजनीतिक सफर शुरू किया था. 1993 से 2017 तक कुंडा से लगातार 6 बार निर्दलीय विधायक रहकर रिकार्ड बना चुके हैं.

राजा भैया बीजेपी और सपा सरकार में रह चुके हैं मंत्री

साल 1996 में बीजेपी उनका समर्थन किया था. राजा भैया कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री काल में मंत्री रहे हैं. राजा भैया से पहले कुंडा सीट पर कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे नियाज हसन का कब्जा रहा था. नियाज हसन 1962 से 1889 तक पांच बार कुंडा से विधायक रहे. राजा भैया अपने सियासी रसूख के कारण बाबागंज सीट पर अपने करीबी विधायक विनोद सरोज को चुनाव जिताते रहे हैं. इससे पहले विनोद सरोज के पिता बाबा गंज से चुनाव जीतते रहे हैं.

राजा भैया को चुनावों में सपा-बीजेपी की बैसाखी मिलती रही है

राजा भैया जब साल 2002 में चुनाव लड़े तो उनको 88,446 वोट मिले सपा दूसरे नंबर पर रही. 2002 में बीजेपी ने राजा भैया का सपोर्ट किया और राजा भैया के खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा फिर हुआ साल 2012 का चुनाव हुआ राजा भैया को 1,11,392 वोट मिले बीएसपी दूसरे नंबर पर रही. 2012 के चुनाव ने सपा ने राजा भैया का सपोर्ट किया. सपा ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. साल 2017 में सपा और कांग्रेस दोनों ने राजा भैया के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा बीजेपी दूसरे नंबर पर रही राजा भैया को 1,36,597 वोट मिले. यानी अगर कुंडा से बीएसपी कांग्रेस और सपा मिलकर राजा भैया के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे तो राजा भैया के लिए मुश्किल हो सकती है.

 

((लेखक लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के पूर्व प्रोफेसर हैं..लेख के व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं ultachasmauc.com इससे सहमत या असहमत नहीं है))

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