मायावती-अखिलेश के गठबंधन से बेचैन हो उठी बीजेपी

 

दिल्ली की सत्ता का रास्ता यूपी की गलियों से गुजरता है. उपचुनावों में अपने कई सांसदों को गंवा चुकी हैं. क्योंकि एसपी, बीएसपी गठबंधन उसके रास्ते का रोड़ा बन गए. अब 2019 में सत्ता वापसी की बांट जोह रही बीजेपी के सामने फिर बड़ी चुनौती पेश होने वाली है. क्योंकि दिल्ली में बीएसपी प्रमुख मायावती और एसपी प्रमुख अखिलेश यादव की मुलाकात. कुछ यही संकेत दे रही है.

 

मायावती को बुआ बोलने वाले अखिलेश यादव उनसे मिलने दिल्ली में उनके घर पहुंच गए. दोनों के बीच घंटे भर चली बातचीत के बाद माना जा रहा है कि यूपी में सीटों के बंटवारे का फॉर्मूला तय हो गया है. हालांकि गठबंधन पर आधिकारिक मुहर का ऐलान बाद में होगा. पार्टी के वरिष्ठ नेता और अखिलेश के चाचा राम गोपाल यादव के मुताबिक गठबंधन के साइज़ पर फैसला बाद में होगा.

 

सूत्रों की मानें तो दोनों पार्टियों के नेता एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं देने के लिए मिले. लेकिन इस मुलाकात में गठबंधन के साथ ही सीटों पर सहमति की गुंजाइश खोज ली गई. जिस फॉर्मूले को फिलहाल के लिए फाइनल माना जा रहा है वो 37 सीटों-37 सीटों के बंटवारे का है. यानि लोकसभा की कुल 80 सीटों में से 37 सीट बीएसपी तो 37 सीट एसपी को मिलेंगी. बाकी बची 3 सीटें रालोद और 3 दूसरी उन पार्टियों के लिए रखी गई हैं जो भविष्य एसपी-बीएसपी के साथ गठबंधन में जुड़ सकते हैं.

 

उपचुनावों में जिस तरह दोनों दलों ने मिल कर बीजेपी के ख़िलाफ चुनाव लड़ा था. उससे ये तय हो गया था कि 2019 के चुनावों में भी दोनों मिल कर लड़ सकते हैं. 2014 में हुए चुनाव में सपा 31 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी. वहीं बसपा 34 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी. इस हालत में अगर दोनों पार्टियां एक हो जाएं. तो 65 सीटों पर कब्ज़ा ज़माने में कामयाब हो सकती हैं. यहीं फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव में हुआ. जब बीएसपी ने एसपी प्रत्याशी के समर्थन में वोट करने की अपील की तो. दोनों को अलग-अलग मिलने वाले वोट एक जगह पड़ गए. नतीजा बीजेपी को अपने ही गढ़ में शिकस्त खानी पड़ी.

 

एसपी-बीएसपी के गठबंधन में कांग्रेस को किनारे करने के बावजूद. कांग्रेस ने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है. उसे लगता है कि देर-सबरे सही दोनों पार्टियां उसके साथ आएंगी.

 

ज़ाहिर है एसपी-बीएसपी गठबंधन बीजेपी के लिए भले ही उपचुनाव में चुनौती बन चुके हैं. लेकिन लोकसभा चुनावों में उसे मोदी लहर का भरोसा है. वो गठबंधन को ज्यादा तूल नहीं देना चाहती. बीजेपी के इस कॉन्फिडेंस की वजह यूपी का पिछड़ा वोट बैंक है जिस पर उसकी नज़र है.

 

यूपी के जातिगत समीकरण में पिछड़े वोटों का दबदबा है. जिसे भुनाने के लिए बीजेपी जोर आजमाइश कर सकती है. 42-45 फीसदी वोट बैंक वाले इस बिरादरी में अगर बीजेपी सेंध लगाने में कामयाब होती है. तो उसकी मुश्किलें कुछ हद तक कम हो सकेंगी. इसके अलावा बीजेपी को लगता है कि जिन सांसदों को लेकर जनता के बीच नाराज़गी है. अगर उनके टिकट काट कर नए चेहरों को मौका दिया जाए तो शायद वो अपना नुकसान होने से बचा लेगी.

 

दरअसल यूपी के जातीय समीकरण में पिछड़े वर्ग के वोटों के बाद दलितों का दबदबा है 21-22 फीसदी वोटों के साथ इसको अब तक मायावती भुनाती रही हैं. मगर 2014 के चुनाव में बीजेपी ने इसमें सेंधमारी करके बाजी पलट दी थी. वहीं 18-20 फीसदी वाले सवर्ण वोट का झुकाव चुनावों तक साफ होने की उम्मीद है. और बचे 16-18 फीसदी मुस्लिम वोट वो या तो एसपी के साथ जाएंगे. या फिर अलग रहने की सूरत में कांग्रेस और बीएसपी के बीच बंट सकते हैं.

मायावती अखिलेश राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी
मायावती अखिलेश राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी

 

वोटों की इसी गणित से बीजेपी उत्साहित है. और ऐसे में उसे लगता है कि मोदी लहर के साथ ये समीकरण फिट बैठ गए. तो एक बार फिर बाजी उसके हाथ होगी. लेकिन ये होगा कैसे. और इसका फॉर्मूला कैसे निकलेगा. ये भी साफ नहीं है. इस बीच अपना दल की नाराज़गी ने उसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है. तभी तो चुनावी बिसात बिछाने के लिए बीजेपी कदम फूंक-फूंक कर रख रही है.

 

2014 के नतीज़ों को देखें तो यूपी में कुल 80 सीटों की गणित कुछ इस तरह थी कि. यूपी में बीजेपी ने 71 सीटों पर जीत हासिल की थी. मगर तीन सीट फूलपुर, गोरखपुर एसपी ने तो कैराना में रालोद ने उसके हाथ से छीन ली. गठबंधन की इसी ताकत को दोहराने की कोशिश एसपी, बीएसपी कर रहे हैं. और कांग्रेस में अपनी हिस्सेदारी खोज कर. बहती गंगा में हाथ धोने के इरादे से है. लेकिन दोनों पार्टियों ने राज्य सरकारों का समर्थन कर. लोकसभा में कांग्रेस के साथ आने की जुगत को नज़रअंदाज कर दिया है. यूपी में बीजेपी और कांग्रेस की सियासी मुश्किल एक जैसी हो गई हैं. बीजेपी को गठबंधन से ख़तरा. वहीं कांग्रेस को गठबंधन के बाहर रहने से ख़तरा.

 

 

 

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