बिहार में लालू के बिना राजनीति का पत्ता अब भी नहीं हिल सकता..who is lalu
बिहार में लालू ने आडवाणी का रथ रोककर मोदी-शाह को धूल चटाने वाले लालू का पावर आज भी बरकरार है
बीजेपी को कांख में दबा लेने वाले लालू, 2019 के लिए तैयार हैं.
WHO IS POLITICAL LALU
बिहार में राजनीती की बाद बिना लालू के अधूरी है. विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव लालू के सियासी समीकरण का जोड़ बेजोड़ होता है. बड़े-बड़े महारथी भी लालू यादव की चालों में उलझ जाते हैं. याद कीजिए विधानसभा चुनाव जब मोदी मैजिक में पूरा उत्तर भारत मचल रहा था तब लालू एंड सन्स ने मोदी का विजयी रथ बिहार में रोक दिया था. ये ताकत है लालू यादव की बिहार की राजनीति में.

लालू यादव की इसी ताकत को चुनौती देने के लिए नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जैसे दिग्गजों ने बीजेपी के साथ एनडीए बनाया. पहले तो उपेंद्र कुशवाहा भी इसी एनडीए का हिस्सा थे. लेकिन अब पाला बदल लिया है.
बहरहाल लालू यादव बिहार के वोटर्स की नब्ज पर किस तरह से नज़र रखते हैं. गठजोड़ की सियासत को कैसे चमकाते हैं. जातिगत समीरकणों को कैसे मांजते हैं. इन सबकी चर्चा करें. उसके पहले बिहार की राजनीति में गठजोड़ की अहमियत समझ लीजिए.
सियासत दो हिस्सों में बंटी
दरअसल बिहार की सियासत दो हिस्सों में बंटी है. पहला है एनडीए और दूसरा हर बार चुनाव में तैयार फिर ध्वस्त हो जाने वाला. आरजेडी के नेतृत्व में बनने वाला गठबंधन. इस बार इसका नाम महागठबंधन रखा गया है. एनडीए में जहां जनता दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी और भारतीय जनता पार्टी शामिल है.
वहीं महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, अब उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी, जीतन राम मांझी की पार्टी और शरद यादव की पार्टी शामिल हो सकती है. यानी बिना गठबंधन अकेले अपने दम पर बिहार में ना तो किसी पार्टी की ताकत बची है ना ही जनता उसे कबूल करने वाली है.
सियासत के मायने
बिहार में विकास और मजहब भले ही चुनाव प्रचार के दौरान सियासी जुमले बनें. लेकिन ज़मीनी हकीकत जातियों का सियासी समीकरण ही है. सभी दल एक खास जाति को साथ लेकर चलते हैं. लालू यादव जहां यादवों के हितों को महत्व देते दिख रहे हैं और अपने राजपूत सांसदों की मदद से राजपूत वोटों पर कब्जा जमाने की फिराक में हैं, तो नीतीश कुर्मी-कोयरी को प्राथमिकता देते नजर आते हैं.
रामविलास पासवान की प्राथमिकताएं स्वाभाविक तौर पर दलित हैं. तो कुछ जातियां जैसे भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण और वैश्य भारतीय जनता पार्टी की प्रायोरिटी लिस्ट में हैं.
बिहार में तकरीबन 33 फीसदी ओबीसी हैं, तो एमबीसी भी तकरीबन 22 फीसदी हैं. एमबीसी में पिछड़ी जातियों के 11 फीसदी कोइरी और कुर्मी को जोड़ दिया जाये, तो 33 फीसदी का मजबूत गठजोड़ बनता है. नीतीश कुमार के साथ बीजेपी इसी को साधना चाहती है.
बीजेपी को इनसे है फ़ायदा
बीजेपी ये मानकर चल रही है कारोबारी वर्ग से उनको समर्थन मिलता रहा है और आगे भी मिलेगा. बिहार में सात फीसदी बनिया हैं. जिनके वोट बीजेपी को पारंपरिक रूप से मिलते रहे हैं. जातिगत आंकड़ों के इस उलझे हुए राजनीतिक गणित में तकरीबन पौने पांच फीसदी भूमिहार और पौने छह फीसदी ब्राह्मण भी हैं. जो विकल्प की तलाश में बीजेपी को वोट देते आ रहे हैं.
बिहार का एक्सीडेंटल सीएम
महागठबंधन की सियासत के खेवनहार लालू यादव हैं. जो बिहार के 13 फीसदी यादव वोटर्स को अपना वोट बैंक मानते हैं. और मुस्लिम वोट को मिलाकर यादव-मुस्लिम यानी MY समीकरण बनाते हैं. महागठबंधन की इस सियासत का एक और हिस्सा हैं जीतनराम मांझी. आप इन्हें बिहार का एक्सीडेंटल सीएम कह सकते हैं.
जीतनराम मांझी महादलित वर्ग से आते हैं. और इस महादलितों के वोट बैंक पर अपना कब्जा भी मानते हैं. उपेंद्र कुशवाहा कोरी समुदाय के 11 फीसदी वोट पर नज़र रखते हैं. और पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए के साथ जुड़कर केंद्र में मंत्री पद का स्वाद भी चख चुके हैं.
लोकसभा चुनाव के पहले एनडीए की तैयारी जोरों पर है. चालीस लोकसभा सीटों वाले बिहार में एनडीए ने तो सीटों का बंटवारा भी कर लिया है. 17 जेडीयू, 17 बीजेपी और 6 एलजेपी
लालू के बिन सियासत सूनी
महागठबंधन की आखिरी तस्वीर अभी तय नहीं हुई है. रांची में जेल की सलाखों के पीछे क़ैद लालू यादव से उपेंद्र कुशवाहा और शरद यादव का मिलना इसी सिलसिले में है. क्योंकि लालू यादव के बिन महागठबंधन कि सियासत सूनी है. लालू एंड संस इसी कवायद में लगे हैं कि कांग्रेस को साथ रख कुछ अच्छा हो जाए. और बिहार में नीतीश, रामविलास, बीजेपी के सामने महागठबंधन 2019 में दमदार तेवर के साथ उतरे….लेकिन पेंच है कि लालू के बिना सुलझने वाला नहीं.
लालू यादव की सियासत सिर्फ पार्टियों और जातीय समीकरणों को सुलझाने में ही फिलहाल नहीं अटकी है. बल्कि उनकी फैमिली में भी उनके दो लाल लाल-पीले हो रहे हैं. बड़े बेटे तेज प्रताप का प्रतापी स्वरूप छोटे बेटे तेजस्वी को नहीं भाता.
बैकग्राउंड में राबड़ी देवी
बाहुबली नेता अनंत सिंह को महागठबंधन में शामिल करने का तेज प्रताप ने संकेत दिया तो तेजस्वी ने उसे सिरे से खारिज कर दिया. लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी एक दशक तक बिहार की मुख्यमंत्री रही हैं. लेकिन अब वो बैकग्राउंड में दिख रही है.
उनकी जगह अब बेटी मीसा भारती ने ले ली है. जो राज्यसभा की सांसद भी हैं. और भ्रष्टाचार के आरोपो से घिरी भी हैं. यानी लालू एंड संस के बीच लालू के बाद के सियासी वारिस की फाइनल स्क्रिप्ट अभी तय होनी है. और इस बीच लालू यादव जेल में दिन बिता रहे हैं.
बात 2014 आम चुनाव की करें जिसके आधार पर महागठबंधन में सीटों का बंटवारा होना है तो लोकसभा चुनाव 2014 में बिहार से लोकसभा की कुल चालीस सीटों में से मात्र दो पर जेडीयू, सात पर एलजेपी और बाइस पर बीजेपी को जीत मिली थी. लेकिन अबकी बार 17 सीटों पर चुनाव लड़ने के ऐलान के साथ बीजेपी मैदान में उतर रही है.
दूसरी ओर 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी 27, कांग्रेस 12 और एनसीपी 1 सीट पर चुनाव लड़ी थी. एनसीपी के तारिक अनवर अब कांग्रेस में हैं इसलिए कांग्रेस की वास्तविक संख्या अब 13 हो गई है. लेकिन तब जीतनराम मांझी सरीखे सियासदान महागठबंधन में नहीं थे.
दल बदलू नीतीश
दरअसल 2014 से अब तक बिहार की सियासत में बहुत उठापटक हुई. नीतीश कभी लालू यादव के साथ रहे तो अब बीजेपी के साथ हैं. जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा का भी यही हाल है. यानी सबको अपनी सियासत चमकाने के लिए बेहतर तालमेल की हमेशा गुंजाइंश दिखती रहती है. लिहाजा मेल चाहे बीजेपी से हो या आरजेडी से कोई फर्क नहीं पड़ता. और तब लालू यादव और महत्वपूर्ण हो जाते हैं.
लालू यादव ने लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोका था. और नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाकर मोदी-शाह के विजय रथ का पहिया भी रोक दिया था. लेकिन अब आम चुनाव के पहले फिर सियासी गणित उलझ गया है.
पाला बदलने के खेल में कुछ अपने पराए हो गए हैं तो कुछ पराए अपना बनने के लिए बेकरार हैं. और इन सबके बीच है..बिहार जहां नीतीश कुमार के सुशासन का दावा है और लालू यादव के गरीब-गुरबा का जुमला. जिसमें हर बार अटकते रहे हैं बिहार के असली मुद्दे. और यही सवाल उन्हें कचोटता है जो मतदाता जातीय दायरे में बंद नहीं हैं.