सियासत में नाम बोलता है छुप-छुपाकर नहीं सरेआम बोलता है
भई मसला ये है की आजकल सोशल मीडिया में ‘ नामकरण की सियासत ‘ को लेकर बड़ा हो-हल्ला मचा पड़ा है ,कुछ तो ख़ुशी के मारे बल्लियों उछल रहें हैं और कुछ कुढ़न के मारे फन्नाये नाग हुए जा रहें है ! तो भैया इलाहाबाद जो पहले ‘ प्रयाग ‘ था फिर ‘इलाहाबास ‘ हुआ फिर ‘ अलाहाबाद ‘ हुआ और अब फिर क़रीब 400 साल बाद दोबारा से वो ‘ प्रयाग राज ‘ हो गया है.
इस बात पर चारों दिशाओं में उत्तर प्रदेश के मुख्य्मंत्री योगी आदित्यनाथ के नाम की कहीं जय – जय तो कहीं हाय – हाय कार हो रही है… मामला बड़ा मिक्स्ड फ़ीलिंग का है इसलिए मज़ा भी डबल है | और सुनिए सिर्फ इलाहबाद ही नहीं पुराना मुगलसराय स्टेशन अब नया – नवेला छैल छबीला ‘ पंडित दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन ‘और गोखपुऱ हवाई अड्डे का नाम बदलकर ”गोरख़पुर महायोगी एयरपोर्ट ” हो गया है वगैरह वगैरह..
नेताओं पर हो ना हो लेकिन सोशल मीडिया पर इस अघोषित नामकरण का बड़ा गहरा असर पड़ा…और देखते ही देखते सोशल मीडिया के इस ज़हरीले सांप ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमत्रीं योगी आदित्यनाथ को डंस ही लिया .. सोशल मीडिया के कई पुरोधाओं ने ऐसी MEMES KRANTI ला दी जो अगर योगी जी देख लें तो शायद पद छोड़कर पर्वतों पर संन्यास को चलें जायेंगे | चलिए दिखातें है कैसे –
अब काम की बात पर आओ –
हंसी ठिठोली हो गयी हो तो दिमाग की बत्ती जलाने के लिए ये जान लें कि सियासत में भावनाएं , संवेदनाएं और इच्छाएं नहीं सिर्फ़ ‘ नाम चलता है ‘ ! वैसे ये ट्रेंड तो मुग़ल काल से लेकर अंग्रेज़ी हुकूमत तक और गांधी युग से लेकर वर्तमान तक सभी सत्ताधारियों का फ़ेवरेट रहा है.
तो चचा अब चिल हो जाओ क्योंकि राजनीति में नाम बदलने का रिवाज़ बहुत पुराना है…इसलिए पूरब से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी सरकारें इस बहती गंगा में डुबकी लगाती ही है ! इसीलिए कहा भी गया है.. जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाएं ?
मुद्दा ये नहीं की नाम बदला है , ज़रूरत क्या थी ?
शेख्सपीयर ने कहा है – ‘ नाम में क्या रखा है, गर गुलाब को हम किसी और नाम से भी पुकारें तो वो ऐसी ही खूबसूरत महक देगा ‘… तो इलाहबाद हो या प्रयागराज संगम किनारे की गुड़ की जलेबी , नमकीन खाजा का स्वाद और इलाहबाद किले की ऊँची मीनारे जस की तस ही रहेंगी जो बदलेगा वो होगा ‘माहौल’ क्योंकि राजनीतिक दलों को हालात बदलने से नहीं बल्कि नाम बदलने का फायदा मिलता है.
गौर कीजिये जिस वर्ग से नाम चुना गया उस वर्ग का ख़ास झुकाव उस पार्टी और सरकार की ओर होता ही है. जब तक कांग्रेस का शासन था तब तक गांधी और नेहरू के नाम पर फायदा मिला ! हर स्थान-भवन का नाम नेहरू-गांधी परिवार पर रखा गया | फिर बसपा ने फिर सपा ने अपनी मन मर्ज़ी मुताबिक़ इस रिवाज़ को आगे बढ़ाया.
सियासत में ‘नाम बोलता है’ छुप-छुपाकर नहीं सरेआम बोलता है
जैसे मायावती ने अमेठी को ज़िला बताकर उसका नाम ‘ छत्रपति शाहू जी महाराज नगर ‘ कर दिया था फिर जब मुलायम की सरकार आयी तो नेता जी ने मायावती का फ़ैसला रद्द कर दिया. उसके बाद जब फिर मायावती सत्ता में आयीं तो उन्होंने अपना पुराना फैसला लागू कर दिया फिर 2012 में जब अखिलेश यादव आए तो उन्होंने अपनी प्यारी बुआ जी के रखे अमेठी समेत सभी ज़िलों के नाम धड़ाधड़ बदल डाले
जैसे महामाया नगर ‘ हाथरस’ हो गया कांशीराम नगर ‘कांसगंज’ और रमाबाई नगर ‘ कानपुर देहात वगैरह वगैरह अब जब 2016 में योगी जी आएं तो अखिलेश से इतना गुसाएं थे कि पहले तो समाजवादी नाम की सभी योजनाओं के नाम बदल कर उनपर अपना कॉपी राइट मढ़ डाला. और देखते ही देखते पूरे उत्तर प्रदेश की दीवारों से लेकर सियासत के गलियारों तक बीजेपी का रंग चढ़ गया.
हमने बांबे से मुंबई, कलकत्ता से कोलकाता, मद्रास से चेन्नई और बैंगलोर से बंगलुरु होते देखा है तो ये बदलाव भी देख लेंगे .. लेकिन हमारी ज़रूरत है की हम अपने मुद्दे समझ पाएं ! हमारी ज़रूरत शहरों , ज़िलों , कस्बों अस्पतालों के नाम बदलने से पूरी नहीं होगी ! ज़रूरत है कि जो ज़रूरी है हम उसके लिए आवाज़ उठाये.
- (( ये लेख भारत समाचार में कार्यरत पत्रकार प्रज्ञा मिश्रा ने लिखा है इसके Ultachasmauc.com सहमत या असहमत नहीं है))